जिस वक़्त कि कोठे पर वो माह-ए-तमाम आवे
क्या दूर है गर उस को सूरज का सलाम आवे
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'मुसहफ़ी' फ़ारसी को ताक़ पे रख
जितना कि ये दुनिया में हमें ख़्वार रखे है
दुख़्तर-ए-रज़ की हूँ सोहबत का मुबाशिर क्यूँ-कर
कहती है नमाज़-ए-सुब्ह की बाँग
हरगिज़ रहा न काफ़िर ओ मोमिन से उस को काम
हर चंद अमरदों में है इक राह का मज़ा
मैं सवा शेर के कुछ और समझता ही नहीं
सुन्नी ओ शीआ के क़ज़िए में है हैराँ मिरी अक़्ल
जब घर से वो बाद-ए-माह निकले
इस नौ-बहार में तो तरह गुल के ऐ नसीम
शेर दौलत है कहाँ की दौलत
तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की