जिस को कहते हैं अरसा-ए-हस्ती
तौसन-ए-उम्र की है इक सरपट
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मैं अजब ये रस्म देखी मुझे रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
ऊधर गया तू ग़ुस्ल को हम्माम की तरफ़
दिल सीने में बेताब है दिलदार किधर है
क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़
शब-ए-विसाल कब आती है मेरे घर ऐ चर्ख़
जिस वक़्त कि कोठे पर वो माह-ए-तमाम आवे
तू खुले बालों मिरे सामने आया मत कर
ज़ुल्मात-ए-शब-ए-हिज्र की आफ़ात है और तू
छेड़ मत हर दम न आईना दिखा
होश उड़ जाएँगे ऐ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ तेरे
जिस बयाबान-ए-ख़तरनाक में अपना है गुज़र
कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में फिरता हूँ भटकता कब का