जिस हुस्न के जल्वे हैं आरिफ़ की निगाहों में
वो हुस्न बनावे है काबे को सनम-ख़ाना
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क्या किया उस का किसू ने बाग़ से जाती रही
कह दो मजनूँ से करे अपनी सवारी तय्यार
किश्वर-ए-दिल अब मकान-ए-दर्द-ओ-दाग़-ओ-यास है
आस्तीं उस ने जो कुहनी तक चढ़ाई वक़्त-ए-सुब्ह
इक दिन तो लिपट जाए तसव्वुर ही से तेरे
डाल कर ग़ुंचों की मुँदरी शाख़-ए-गुल के कान में
नित जिन आँखों में रहे था तेरी सूरत का ख़याल
कभी तो बैठूँ हूँ जा और कभी उठ आता हूँ
ये ज़माना वो है जिस में हैं बुज़ुर्ग ओ ख़ुर्द जितने
हिन्दोस्ताँ में दौलत ओ हशमत जो कुछ कि थी
ए'तिबारात हैं ये हस्ती-ए-मौहूमी के
इस गुलशन-ए-पुर-ख़ार से मानिंद-ए-सबा भाग