जिस बयाबान-ए-ख़तरनाक में अपना है गुज़र
'मुसहफ़ी' क़ाफ़िले उस राह से कम निकले हैं
Mir Taqi Mir
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
Jaun Eliya
Ahmad Faraz
Habib Jalib
Javed Akhtar
Anwar Masood
Mohsin Naqvi
Allama Iqbal
Rahat Indori
Wasi Shah
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(288) Peoples Rate This
तड़ावे के लिए है ख़्वान पोश महर-ओ-मह नादाँ
ऐ शब हिज्र कहीं तेरी सहर है कि नहीं
जाड़ों में है ये रंग कि अपने लिहाफ़ के
ज़ुल्फ़ों का बिखरना इक तो बला, आरिज़ की झलक फिर वैसी ही
तुम्हारे सामने क्या 'मुसहफ़ी' पढ़े अशआर
आलम से हमारा कुछ मज़हब ही निराला है
बे-मुरव्वत तुझे आज़ुर्दा करेंगे हम लोग
वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो
दिल को ये इज़्तिरार कैसा है
मर्ग की देखते ही शक्ल गए भाग हवास
तू मेरे दर्द से आगाह यूँ न होवेगा
सीना है पुर्ज़े पुर्ज़े जा-ए-रफ़ू नहीं याँ