जी में है इतने बोसे लीजे कि आज
महर उस के वहाँ से उठ जावे
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हसरत पे उस मुसाफ़िर-ए-बे-कस की रोइए
ज़ुल्फ़ अगर दिल को फँसा रखती है
ग़ुस्से को जाने दीजे न तेवरी चढ़ाइए
तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की
बिन ख़ूँ से लिक्खे कोई होता है नामा रंगीं
पैवस्ता गर्द-ए-दश्त रही गर तह-ए-दरूँ
पाँव में क़ैस के ज़ंजीर भली लगती है
ख़ाक-ए-आग़श्ता-ब-ख़ूँ को मिरी बे-क़द्र न जान
ज़ि-बस ख़ून-ए-ग़लीज़ आँखों से आया
है रोज़-ए-पंज-शम्बा तू फ़ातिहा दिला दे
गरचे तुम ताज़ा गुल-ए-गुलशन-ए-रानाई हो
इस गोशा-ए-उज़्लत में तन्हाई है और मैं हूँ