जी जिस को चाहता था उसी से मिला दिया
दिल की कशिश ने की ये करामात राह में
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मुझ को ये सोच है जीते हैं वे क्यूँ-कर या-रब
ऐ शब हिज्र कहीं तेरी सहर है कि नहीं
मेरे और यार के पर्दा तो नहीं कुछ लेकिन
तुम्हारी और मिरी कज-अदाइयाँ ही रहीं
तसव्वुर तेरी सूरत का मुझे हर शब सताता है
मक़्तल-ए-यार में टुक ले तो चलो ऐ यारो
मंज़िल-ए-मर्ग के आ पहुँचे हैं नज़दीक अब तो
चली भी जा जरस-ए-ग़ुंचा की सदा पे नसीम
मारे हया के हम से वो कल बोलता न था
हरगिज़ रहा न काफ़िर ओ मोमिन से उस को काम
सुन्नी ओ शीआ के क़ज़िए में है हैराँ मिरी अक़्ल
मैं कर के चला बातें और उस शोख़ ने वोहीं