झुर्रियाँ क्यूँ न पड़ें उम्र-ए-फ़ुज़ूँ में मुँह पर
तन पे जब लाए शिकन पीर-ए-कुहन-साल की खाल
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जितना कि ये दुनिया में हमें ख़्वार रखे है
शेर क्या जिस में नोक-झोक न हो
सादिक़ से बस इक आन में हो जावे तू काज़िब
कहती है नमाज़-ए-सुब्ह की बाँग
ग़ुबार-ए-दिल को में मिज़्गान-ए-यार से झाड़ा
लेने लगे जो चुटकी यक-बार बैठे बैठे
सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है
तर्रार ज़ुल्फ़-ए-यार अगर चर्ख़ पर चढ़े
टुकड़ा जहाँ गिरा जिगर-ए-चाक-चाक का
ग़म तिरा दिल में मिरे फिर आग सुलगाने लगा
वही रातें आएँ वही ज़ारियाँ
जब कि बे-पर्दा तू हुआ होगा