जंगल में टेसू फूला और बाग़ में शगूफ़ा
फ़स्ल-ए-बहार आई मौसम गया ख़िज़ाँ का
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तरसा न मुझ को खींच के तलवार मार डाल
शब में वाँ जाऊँ तो जाऊँ किस तरह
इक दिन तो लिपट जाए तसव्वुर ही से तेरे
गए हैं यार अपने अपने घर दालान ख़ाली है
मुज़्दा ऐ यास कि याँ कुंज-ए-क़फ़स के क़ैदी
उस के कूचे में सदा मुझ को नज़र आता है
आए हो तो ये हिजाब क्या है
न समझो तुम कि मैं दीवाना वीराने में रहता हूँ
उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो
मज्लिस में उस की अब तो दरबार सा लगे है
अमआ की परी माने-ए-पर्वाज़ है जिस तरह
क़लक़-ए-दिल से हैं जैसे मिरे रुख़्सारे ज़र्द