जम्अ रखते नहीं, नहीं मालूम
ख़र्च अपना कहाँ से उठता है
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औरों की तरफ़ तू देखता है
क़िस्सा-ए-मजनूँ पसंद-ए-ख़ातिर जानाना है
ऐ इश्क़ तेरी अब के वो तासीर क्या हुई
आधी रात आए तिरे पास ये किस का है जिगर
क्या बैठना क्या उठना क्या बोलना क्या हँसना
रही हमेशा तरक़्क़ी मिरी असीरी को
पर्दा उठा के मेहर को रुख़ की झलक दिखा कि यूँ
गो ज़ख़्मी हैं हम पर उसे क्या ग़म है हमारा
आख़िर तो अर्श पर हैं अर्वाह-ए-शाइराँ भी
वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो
शब-ए-विसाल कब आती है मेरे घर ऐ चर्ख़
नासेहा दूर हो चल मुझ से तू हिज्जे मत कर