जागा है रात प्यारे तू किस के घर जो तेरी
पलकें नदीदियाँ हैं आँखें ख़ुमारियाँ हैं
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मुसव्विरों ने क़लम रख दिए हैं हाथों से
यूँ चश्म-ए-तर से चेहरे पर आँसू हुए रवाँ
ख़्वाब का दरवाज़ा कुइ मसदूद कर देता है रोज़
हरगिज़ रहा न काफ़िर ओ मोमिन से उस को काम
कम है कुछ कुंदन से क्या चेहरे का उस के रंग-ए-ज़र्द
सामने आँखों के हर दम तिरी तिमसाल है आज
ऐ 'मुसहफ़ी' उस्ताद-ए-फ़न-ए-रेख़्ता-गोई
फिर ये कैसा उधेड़-बुन सा लगा
न आया शाम भी घर फिर के अपने
इक हाल हो तो यारो उस का बयाँ करें हम
ये कू-ए-मय-फ़रोश में रौला हुआ कि रात
क्या जानिए किस किस को मैं याँ दी है अज़िय्यत