जाड़ों में है ये रंग कि अपने लिहाफ़ के
बूटे जो मोंगिया हैं तो माशी ज़मीन है
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ग़ज़ल कहने का किस को ढब रहा है
जो मिला उस ने बेवफ़ाई की
हर्बा है आशिक़ों का फ़क़त आह-ए-पेचदार
तू मेरे सामने बैठा है आह तिस पर भी
जब मैं ने कहा आँखें छुपा खोल दिया मुँह
नख़्ल-ए-हिरमाँ को न थी बालीदगी
करता हूँ सवाल जिस के दर पर
तन तो कहाँ है शोला-ए-फ़ानूस की तरह
हूँ शैख़ मुसहफ़ी का मैं हैरान-ए-शाएरी
दिल-ए-मायूस को पहने हुए आती हैं नज़र
ये क्या सुलूक किया तू ने मुझ से दस्त-ए-जुनूँ
नसीम-ए-सुब्ह-ए-चमन से इधर नहीं आती