जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
उठ कर तिरे दरवाज़े से जाने के नहीं हम
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किस की ख़ातिर को मुक़द्दम रख्खूँ मैं हैरान हूँ
'मुसहफ़ी' शिर्क भी ऐसे का नहीं यार बुरा
किस के मजरूह गुलिस्ताँ में हैं मदफ़ूँ जो हनूज़
दरिया-ए-आशिक़ी में जो थे घाट घाट साँप
कीजिए ज़ुल्म सज़ा-वार-ए-जफ़ा हम ही हैं
दारुश्शफ़ा-ए-इश्क़ में ले जा के हम को इश्क़
अगरचे दिल तो हमें तुम से कुछ अज़ीज़ नहीं
कहीं मग़्ज़ उस के मैं सुब्ह-दम तिरी बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-रसा गई
मिला है आशिक़ी में रुतबा-ए-पैग़म्बरी मुझ को
हिन्दोस्ताँ में दौलत ओ हशमत जो कुछ कि थी
बचा गर नाज़ से तो उस को फिर अंदाज़ से मारा
तू छोड़ अब तो असीर-ए-क़फ़स को ऐ सय्याद