जब से मअ'नी-बंदी का चर्चा हुआ ऐ 'मुसहफ़ी'
ख़लते में जाता रहा हुस्न-ए-ज़बान-ए-रेख़्ता
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नख़्ल-ए-हिरमाँ को न थी बालीदगी
'मीर' क्या चीज़ है 'सौदा' क्या है
ऐ 'मुसहफ़ी' शायर नहीं पूरब में हुआ मैं
दिल-ए-मायूस को पहने हुए आती हैं नज़र
रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस
सोहबत है तिरे ख़याल के साथ
आसमाँ को निशाना करते हैं
हम से वो बे-सबब उलझती है
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
नख़्ल लाले जा जब ज़मीं से उठा
बर्क़-ए-रुख़्सार-ए-यार फिर चमकी
लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं