जब इस में ख़ूँ रहा न तो ये दिल का आबला
हो ख़ुश्क जैसे दाना-ए-अँगूर रह गया
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यक नाला-ए-आशिक़ाना है याँ
परेशाँ क्यूँ न हो जावे नज़ारा
की आह हम ने लेकिन उस ने इधर न देखा
रंग-ए-बदन से उस के ये होता जल्वा-गर
आँखें हैं जोश-ए-अश्क से पनघट
ख़ाक-ए-बदन तिरी सब पामाल होगी इक दिन
मैं जो कुछ हूँ सो हूँ क्या काम है इन बातों से
ऐ 'मुसहफ़ी' शायर नहीं पूरब में हुआ मैं
मैं किस क़तार में हूँ जहाँ मुझ से सैकड़ों
बैठे बैठे जो हम ऐ यार हँसे और रोए
तू छोड़ अब तो असीर-ए-क़फ़स को ऐ सय्याद
पलकें नहीं छोड़तीं कि इक दम