जब चाहे तू जला दे मिरे मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ
किस दिन कहा मैं ऐ नफ़स-ए-आतिशीं नहीं
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इक बिजली की कौंद हम ने देखी
सदा फ़िक्र-ए-रोज़ी है ता ज़िंदगी है
चाहूँगा मैं तुम को जो मुझे चाहोगे तुम भी
हम गबरू हम मुसलमाँ हम जम्अ हम परेशाँ
रात के रहने का न डर कीजिए
कुफ़्र और दीं में तग़ायर नहीं गर देखिए ख़ूब
तारीकी में होता है उसे वस्ल मयस्सर
ऐ 'मुसहफ़ी' गावे ये ग़ज़ल मेरी जो राँझा
दर तलक आ के टुक आवाज़ सुना जाओ जी
हर-चंद कि बात अपनी कब लुत्फ़ से ख़ाली है
देख कर हम को न पर्दे में तू छुप जाया कर
अब जिस दिल-ए-ख़्वाबीदा की खुलती नहीं आँखें