जानते आप से जुदा तुझ को
करते गर फ़र्क़ जिस्म ओ जाँ में हम
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आदमी को ग़फ़लत-ए-दुनिया नहीं देती नजात
मैं जिन को बात करना ऐ 'मुसहफ़ी' सिखाया
कीजिए ज़ुल्म सज़ा-वार-ए-जफ़ा हम ही हैं
तख़्ता-ए-आब-ए-चमन क्यूँ न नज़र आवे सपाट
ऐ काश कोई शम्अ के ले जा के मुझे पास
मैं उन मुसाफ़िरों में हूँ इस चश्म-ए-तर के हाथ
जब कि बे-पर्दा तू हुआ होगा
काम अज़-बस-कि ज़माने का हुआ है बर-अक्स
ख़्वाहिश-ए-वस्ल का मज़मूँ जो किसी सत्र में था
कटता हूँ मैं भी वो कि मिरी जिंस-ए-दिल को देख
रहमत तिरी ऐ नाक़ा-कश-ए-महमिल-ए-हाजी
इस गोशा-ए-उज़्लत में तन्हाई है और मैं हूँ