जानिब-ए-कअबा तू क्यूँ ले गया बुत-ख़ाने से
मुझ से दीवाने को ऐ इश्क़ न बहकाना था
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तरह ओले की जो ख़िल्क़त में हम आबी होते
ख़्वाहिश-ए-वस्ल का मज़मूँ जो किसी सत्र में था
राँझा यही कहता था इधर देखियो मजनूँ
तन्हा न वो हाथों की हिना ले गई दिल को
जाने दे टुक चमन में मुझे ऐ सबा सरक
गो अब हज़ार शक्ल से जल्वा करे कोई
तुझ को ऐ सय्याद काविश ही अगर मंज़ूर है
लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खें
रात पर्दे से ज़रा मुँह जो किसू का निकला
रखें हैं जी में मगर मुझ से बद-गुमानी आप
है तमन्ना-ए-सैर-ए-बाग़ किसे
आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा