जाँ-बर हो किस तरह तप-ए-सौदा से 'मुसहफ़ी'
हाँडी सा खदबदाए है कुछ इस जवाँ का मग़्ज़
Habib Jalib
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वो जो आशिक़ हैं अपने हाथों से
चले ले के सर पर गुनाहों की गठरी
उस शाहिद-ए-निहाँ का कुश्ता हूँ मैं कि जिस ने
सदा फ़िक्र-ए-रोज़ी है ता ज़िंदगी है
रेख़्ता-गोई की बुनियाद 'वली' ने डाली
ख़ुश-तालई में शम्स ओ क़मर दोनों एक हैं
बैठे बैठे जो हम ऐ यार हँसे और रोए
मख़्लूक़ हूँ या ख़ालिक़-ए-मख़्लूक़-नुमा हूँ
मुँह छुपाओ न तुम नक़ाब में जान
क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़
उस के मक़्तल में मिरा ख़ून बटा दस्त-ब-दस्त