जान को जैसे निकाले है कोई क़ालिब से
क्या बुरी तरह तिरे कूचे से हम निकले हैं
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हसरत पे उस मुसाफ़िर-ए-बे-कस की रोइए
ऐश-ए-जहाँ बग़ल में तुम्हारी सब आ रहा
बुलबुलो बाग़बाँ को क्यूँ छेड़ा
गरचे ऐ दिल आशिक़-ए-शैदा है तू
जो मुझ आतिश-नफ़्स ने मुँह लगाया उस को ऐ साक़ी
सुम्बुल को परेशान किया बाद-ए-सबा ने
दूर से मुझ को न मुँह अपना दिखाओ जाओ
आग़ोश की हसरत को बस दिल ही में मारुँगा
इक हाल हो तो यारो उस का बयाँ करें हम
दिल ले गया है मेरा वो सीम-तन चुरा कर
गो मैं बुतों में उम्र को काटा तो क्या हुआ
याँ रख़्ना-हा-ए-सीना कुदूरत से हैं फटे