जान जानी है मिरी ऐ बुत-ए-कम-सिन तुझ पर
मर ही जाऊँगा गला काट के इक दिन तुझ पर
Parveen Shakir
Wasi Shah
Mir Taqi Mir
Allama Iqbal
Habib Jalib
Jaun Eliya
Gulzar
Javed Akhtar
Ahmad Faraz
Rahat Indori
Faiz Ahmad Faiz
Anwar Masood
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(631) Peoples Rate This
इक जाम-ए-मय की ख़ातिर पलकों से ये मुसाफ़िर
खुलता है क़ुफ़्ल-ए-ऐश मिरा इस से 'मुसहफ़ी'
क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़
वही रातें आएँ वही ज़ारियाँ
दिल दुखा ही करे है सीने में
गह तीर मारता है गह संग फेंकता है
ऐ 'मुसहफ़ी' गावे ये ग़ज़ल मेरी जो राँझा
बातों ने उस की हम को ख़ामोश कर दिया है
तो माइल-ए-उश्शाक़-कुशी है तो यहाँ भी
बे-लाग हैं हम हम को रुकावट नहीं आती
ख़ुदा रक्खे ज़बाँ हम ने सुनी है 'मीर' ओ 'मिर्ज़ा' की
ने ज़ख़्म-ए-ख़ूँ-चकाँ हूँ न हल्क़-ए-बुरीदा हूँ