इतनी तो मुझ को सैर-ए-चमन की हवस न थी
पर दिल की बेकली से मैं लाचार हो गया
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दाग़-ए-पेशानी-ए-ज़ाहिद न गया जीते-जी
चमन को आग लगावे है बाग़बाँ हर रोज़
'मुसहफ़ी' कुछ कम नसारा से नहीं
मैं तरह डालूँ अगर सोच कर कहीं घर की
रहने पे जो मस्जिद के मिरी शैख़ की बिगड़ी
पैरहन लूटे मज़े तेरी हम-आग़ोशी के
होता है मुसाफ़िर को दो-राहे में तवक़्क़ुफ़
मुल्हिद हूँ अगर मैं तो भला इस से तुम्हें क्या
हर चंद अमरदों में है इक राह का मज़ा
तू मेरे सामने बैठा है आह तिस पर भी
जी में आती है करूँ उन को मैं इक दिन सीधा
क्यूँ शेर-ओ-शायरी को बुरा जानूँ 'मुसहफ़ी'