इतनी बे-शर्म-ओ-हया हो गई क्यूँ दुख़्तर-ए-रज़
आँखें बाज़ार में यूँ उस को न मटकाना था
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ध्यान बाँधूँ हूँ जो मैं उस की हम-आग़ोशी का
आज ख़ूँ हो के टपक पड़ने के नज़दीक है दिल
गर ये आँसू हैं तो लाख आवेंगे दरिया जोश में
'मुसहफ़ी' शिर्क भी ऐसे का नहीं यार बुरा
इसी सबब तो परेशाँ रहा मैं दुनिया में
लिए आदम ने अपने बेटे पाँच
बाम-ए-फ़लक पे गर वो उड़ाता नहीं पतंग
कर्बला है ये गली क्या जो नहीं मिलता याँ
एक नाले पे है मआश अपनी
क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़
आख़िर तो अर्श पर हैं अर्वाह-ए-शाइराँ भी
दरिया-ए-आशिक़ी में जो थे घाट घाट साँप