इतने महकूम-ए-बुताँ हैं जो ये काफ़िर चाहें
पहनें ज़ुन्नार अभी छोड़ दें इस्लाम को हम
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कशिश ने इश्क़ की क्या काम कुछ किया थोड़ा
होंटों तक आते आते हुई वो भी सर्द आह
मैं जिन को बात करना ऐ 'मुसहफ़ी' सिखाया
'मुसहफ़ी' क्यूँके छुपे उन से मिरा दर्द-ए-निहाँ
क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक
दारुश्शफ़ा-ए-इश्क़ में ले जा के हम को इश्क़
तिरे कूचे हर बहाने मुझे दिन से रात करना
ख़्वाब था या ख़याल था क्या था
इतनी बे-शर्म-ओ-हया हो गई क्यूँ दुख़्तर-ए-रज़
तीखे तो हो प सच कहो उस वक़्त क्या करो
हम 'मुसहफ़ी' ब-कुफ़्र तो मशहूर हो चुके
किसी के अक़्द में रहती नहीं है लूली दहर