इतना जो हम से रहते हो बेगाना मेरी जान
शायद पड़ा है तुम को किसी आश्ना से काम
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दिल चुराना ये काम है तेरा
शीशा-ए-मय की तरह ऐ साक़ी
बर्क़-ए-रुख़्सार-ए-यार फिर चमकी
ले गया काजल चुरा दुज़्द-ए-हिना
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
छोड़ा न एक लहज़ा तिरी ज़ुल्फ़ ने ख़याल
सीने के ज़ोर से भी मू भर नहीं उकसती
क्या वो भी चाव-चूज़ के दिन थे कि जिन दिनों
सुम्बुल को परेशान किया बाद-ए-सबा ने
कूचा-ए-यार में रहने से नहीं और हुसूल
किस ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम के आई है मुक़ाबिल
हम से वो बे-सबब उलझती है