इतना गया हूँ दूर मैं ख़ुद से कि दम-ब-दम
करनी पड़े है अपनी भी अब इल्तिजा मुझे
Allama Iqbal
Wasi Shah
Habib Jalib
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
Javed Akhtar
Parveen Shakir
Mohsin Naqvi
Gulzar
Ahmad Faraz
Anwar Masood
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(295) Peoples Rate This
तमाशे की शक्लें अयाँ हो गई हैं
राँझा यही कहता था इधर देखियो मजनूँ
कहती है नमाज़-ए-सुब्ह की बाँग
पैरहन लूटे मज़े तेरी हम-आग़ोशी के
सौ बार तुम तो सामने आ कर चले गए
हर-चंद कि बात अपनी कब लुत्फ़ से ख़ाली है
अभी अपने मर्तबा-ए-हुस्न से मियाँ बा-ख़बर तू हुआ नहीं
ज़ि-बस हम को निहायत शौक़ है अमरद-परस्ती का
हूँ शैख़ मुसहफ़ी का मैं हैरान-ए-शाएरी
आह हमराज़ कौन है अपना
दिल-ए-मायूस को पहने हुए आती हैं नज़र
शब शौक़ ले गया था हमें उस के घर तलक