इस में आलम की सब आबादी ओ वीराना है
ये जो कुछ पानी से बाहर है ज़मीं थोड़ी सी
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जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
ऐ 'मुसहफ़ी' गावे ये ग़ज़ल मेरी जो राँझा
सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है
भूल जावे साहिब-ए-इक़बाल अपनी सर-कशी
शेर क्या जिस में नोक-झोक न हो
आलम से हमारा कुछ मज़हब ही निराला है
सोते हैं हम ज़मीं पर क्या ख़ाक ज़िंदगी है
बाज़ार से गुज़रे है वो बे-पर्दा कि उस को
सीने के ज़ोर से भी मू भर नहीं उकसती
हो चुका नाज़ मुँह दिखाइए बस
लेखे की याँ बही न ज़र-ओ-माल की किताब
मैं जो कुछ हूँ सो हूँ क्या काम है इन बातों से