इसी सबब तो परेशाँ रहा मैं दुनिया में
कि सालहा तिरी ज़ुल्फ़ों की अबतरी देखी
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बद-गुमानी ने मुझे क्या क्या सताया क्या कहूँ
ग़बग़ब से बचा दिल तो ज़ख़ंदान में डूबा
मुज़्दा ऐ यास कि याँ कुंज-ए-क़फ़स के क़ैदी
तीरथ समझ उस को वो गर अश्नान को आवे
दिल के नगर में चार तरफ़ जब ग़म की दुहाई बैठ गई
भरी आती हैं हर घड़ी आँखें
ज़ि-बस ख़ून-ए-ग़लीज़ आँखों से आया
दिल्ली पे रोना आता है करता हूँ जब निगाह
नसीम-ए-सुब्ह-ए-चमन से इधर नहीं आती
जितना कि ये दुनिया में हमें ख़्वार रखे है
हम सुबुक-रूह असीरों के लिए लाज़िम है
आप हर दम जो ये कहते हैं कि तू क्यूँ है खड़ा