इश्क़-ए-फ़ुज़ूँ में मेरे न हो दोस्तो कमी
माशूक़ उम्र में है बहुत कम तो क्या हुआ
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क्या दख़्ल किसी से मरज़-ए-इश्क़ शिफ़ा हो
कम है कुछ कुंदन से क्या चेहरे का उस के रंग-ए-ज़र्द
मैं अजब ये रस्म देखी मुझे रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
ये जो अपने हाथ में दामन सँभाले जाते हैं
काश सोता ही रहूँ मैं कि नहीं चाहता दिल
मुझ को ये सोच है जीते हैं वे क्यूँ-कर या-रब
पस-ए-क़ाफ़िला जो ग़ुबार था कोई उस में नाक़ा-सवार था
जिस वक़्त कि कोठे पर वो माह-ए-तमाम आवे
तुझ को ऐ सय्याद काविश ही अगर मंज़ूर है
जीते अगर न हम तो क्यूँ ज़िल्लतें उठाते
जब कि बे-पर्दा तू हुआ होगा
मंसूर ने न ज़ुल्फ़ के कूचे की राह ली