इस वास्ते फ़ुर्क़त में जीता मुझे रक्खा है
यानी मैं तिरी सूरत जब याद करूँ रोऊँ
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कल क़ाफ़िला-ए-निक्हत-ए-गुल होगा रवाना
जो शैख़-ए-शहर आया हम से औबाशों की मज्लिस में
ख़ुदा रक्खे ज़बाँ हम ने सुनी है 'मीर' ओ 'मिर्ज़ा' की
सच इश्क़ में हैं आशिक़ ओ माशूक़ बराबर
वो आरज़ू न रही और वो मुद्दआ न रहा
रात पर्दे से ज़रा मुँह जो किसू का निकला
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
ले लिया प्यार से अक्स अपने का झुक कर बोसा
इतना गया हूँ दूर मैं ख़ुद से कि दम-ब-दम
सहराइयान-ए-पूरब क्या जानते हैं इस को
लुट के मंज़िल से कोई यूँ तो न आया होगा
यूँ चलते हैं लोग राह ज़ालिम