इस तरफ़ भी कभी आना कि असीरान-ए-क़फ़स
ऐ नसीम-ए-सहरी तुझ को दुआ देते हैं
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कुफ़्र और दीं में तग़ायर नहीं गर देखिए ख़ूब
ख़ुर्शीद-रू हमारा जिस से मिलेगा हर सुब्ह
रेख़्ता-गोई की बुनियाद 'वली' ने डाली
चाहूँगा मैं तुम को जो मुझे चाहोगे तुम भी
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
कोई घर बैठे क्या जाने अज़िय्यत राह चलने की
कहिए जो झूट तो हम होते हैं कह के रुस्वा
रात के रहने का न डर कीजिए
क्यूँकर न तुझे दौड़ के छाती से लगा लूँ
रखें हैं जी में मगर मुझ से बद-गुमानी आप
ख़ुदा रक्खे ज़बाँ हम ने सुनी है 'मीर' ओ 'मिर्ज़ा' की
अव्वल तो ये धज और ये रफ़्तार ग़ज़ब है