इस रंग से अपने घर न जाना
दामन तिरा ख़ूँ में तर बहुत है
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छेड़े है उस को ग़ैर तो कहता है उस से यूँ
कुश्ता-ए-रंग-ए-हिना हूँ मैं ओजब इस का क्या
घर में बाशिंदे तो इक नाज़ में मर जाते हैं
लहरों का थरथराना क्यूँ-कर पसंद आवे
आई जो रूह-ए-लैला ज़ियारत को क़ैस की
ये रोज़ ढूँढ लाए है इक ख़ूब-रू नया
मर्ग की देखते ही शक्ल गए भाग हवास
अब मुझ को गले लगाओ साहिब
किस राह गया लैला का महमिल नहीं मालूम
किबरियाई की अदा तुझ में है
गो मैं बुतों में उम्र को काटा तो क्या हुआ
अपनी ग़रज़ को आए थे वो रात 'मुस्हफ़ी'