इस इमारत पर न कर मुनइम ग़ुरूर
हम से इबरत ले कि वीराने हैं हम
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जब मैं ने कहा आँखें छुपा खोल दिया मुँह
चीन-ए-पेशानी न दिखलाओ मैं हूँ नाज़ुक-मिज़ाज
ज़माने का चलन यकसाँ नहीं कुछ
रक्खा है ठौर मुझ को कहरवे के नाच ने
आतिश-ए-ग़म में बस कि जलते हैं
क़िस्मत इक शब ले गई मुझ को जो बाग़-ए-वस्ल में
ऐसे डरे हैं किस की निगाह-ए-ग़ज़ब से हम
मैं तेरे डर से न देखा उधर बहुत शब-ए-वस्ल
हर-चंद कि हो मरीज़-ए-मोहतात
अपना रफ़ीक़-ओ-आश्ना ग़ैर-ए-ख़ुदा कोई नहीं
तुम गर्म मिले हम से न सरमा के दिनों में
है यहाँ किस को दिमाग़ अंजुमन-आराई का