इस हवा में कर रहे हैं हम तिरा ही इंतिज़ार
आ कहीं जल्दी से साक़ी शीशा ओ साग़र समेत
Mir Taqi Mir
Javed Akhtar
Parveen Shakir
Ahmad Faraz
Habib Jalib
Anwar Masood
Rahat Indori
Wasi Shah
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
Jaun Eliya
Mohsin Naqvi
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(316) Peoples Rate This
नज़र क्या आए ज़ात-ए-हक़ किसी को
गुलशन में हवा से जो खुला यार का सीना
ये ज़माना वो है जिस में हैं बुज़ुर्ग ओ ख़ुर्द जितने
बाज़ार से गुज़रे है वो बे-पर्दा कि उस को
तमाशे की शक्लें अयाँ हो गई हैं
हम से वो बे-सबब उलझती है
ज़ुल्फ़ अगर दिल को फँसा रखती है
कभी वफ़ाएँ कभी बेवफ़ाइयाँ देखीं
कर के ज़ख़्मी तू मुझे सौंप गया ग़ैरों को
बैठा था आ के क़ैस तो लैला के दर पे लेक
जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
आदमी को ग़फ़लत-ए-दुनिया नहीं देती नजात