इन दिनों शहर से जी सख़्त ब-तंग आया है
ले चल ऐ जोश-ए-जुनूँ सू-ए-बयाबाँ मुझ को
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दिल के नगर में चार तरफ़ जब ग़म की दुहाई बैठ गई
कभी वफ़ाएँ कभी बेवफ़ाइयाँ देखीं
कूचा-ए-यार में रहने से नहीं और हुसूल
कीजिए ज़ुल्म सज़ा-वार-ए-जफ़ा हम ही हैं
हम गबरू हम मुसलमाँ हम जम्अ हम परेशाँ
क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक
आता है यही जी में फ़रियाद करूँ रोऊँ
सादिक़ से बस इक आन में हो जावे तू काज़िब
मैं तुझ को याद करता हूँ इलाही
जब से साने ने बनाया है जहाँ का बहरूप
साया-ए-दीवार जो रोज़-ए-क़यामत में न था
बे-लाग हैं हम हम को रुकावट नहीं आती