ईद तू आ के मिरे जी को जलावे अफ़्सोस
जिस के आने की ख़ुशी हो वो न आवे अफ़्सोस
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कब ख़ूँ में भरा दामन-ए-क़ातिल नहीं मालूम
जब चाहे तू जला दे मिरे मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ
गर मज़ा चाहो तो कतरो दिल सरौते से मिरा
मत गोर-ए-ग़रीबाँ पर घोड़े को कुदाओ यूँ
गह तीर मारता है गह संग फेंकता है
गिर्या दिल को न सू-ए-चश्म बहाओ
वो चाँदनी रात और वो मुलाक़ात का आलम
लिया मैं बोसा ब-ज़ोर उस सिपाही-ज़ादे का
गर ये आँसू हैं तो लाख आवेंगे दरिया जोश में
न पूछ इश्क़ के सदमे उठाए हैं क्या क्या
क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक
बस तू ने अपने मुँह से जो पर्दा उठा दिया