ईद अब के भी गई यूँही किसी ने न कहा
कि तिरे यार को हम तुझ से मिला देते हैं
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दिल्ली पे रोना आता है करता हूँ जब निगाह
जब चाहे तू जला दे मिरे मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ
तुझ को ऐ सय्याद काविश ही अगर मंज़ूर है
गरचे तुम ताज़ा गुल-ए-गुलशन-ए-रानाई हो
रंग-ए-बदन से उस के ये होता जल्वा-गर
इस क़दर भी तो मिरी जान न तरसाया कर
मुख-फाट मुँह पे खाएँगे तलवार हो सो हो
पाया-ए-तख़्त-ए-सुलैमाँ का है शाएर 'मुसहफ़ी'
शब जो होली की है मिलने को तिरे मुखड़े से जान
उस बुत को नहीं है डर ख़ुदा से
बे-मुरव्वत तुझे आज़ुर्दा करेंगे हम लोग
दम ग़नीमत है कि वक़्त-ए-ख़ुश-दिली मिलता नहीं