हम से वो बे-सबब उलझती है
टुक तो समझाओ ज़ुल्फ़-ए-अबतर को
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सादिक़ से बस इक आन में हो जावे तू काज़िब
गर समझते वो कभी मअनी-ए-मत्न-ए-क़ुरआँ
ऐ 'मुसहफ़ी' उसे भी रखता है शाद जी में
क्यूँ कि कहिए कि अदा-बंदी है
वारफ़्ता हूँ ऐसा में कि कूचे में बुताँ के
दाग़-ए-दिल शब को जो बनता है चराग़-ए-दहलीज़
ईद अब के भी गई यूँही किसी ने न कहा
है माह कि आफ़्ताब क्या है
ऐश-ए-जहाँ बग़ल में तुम्हारी सब आ रहा
मेरी सी तू ने गुल से न गर ऐ सबा कही
मैं क्यूँकर न रख्खूँ अज़ीज़ अपने दिल को
तदबीर मआश इस जा है शर्त-ए-ख़िरद-मंदी