हम से पाई नहीं जाती कमर उस की ऐ ज़ुल्फ़
तू ही कुछ राह बता दे तो कमर पैदा हो
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कुछ इस क़दर नहीं सफ़र-ए-हस्ती-ओ-अदम
है ये फ़लक-ए-सिफ़्ला वो फीका सा फ़रंगी
ख़्वाहिश-ए-वस्ल का मज़मूँ जो किसी सत्र में था
सुन्नी ओ शीआ के क़ज़िए में है हैराँ मिरी अक़्ल
पहना जो मैं ने जामा-ए-दीवानगी तो इश्क़
गोया गिरह बहाने की एक उस पे थी लगी
छुरियाँ चलीं शब दिल ओ जिगर पर
दिल चुराना ये काम है तेरा
हम 'मुसहफ़ी' ब-कुफ़्र तो मशहूर हो चुके
सौ बार तुम तो सामने आ कर चले गए
फिर आई ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल की लहर पेश-ए-नज़र
रखें हैं जी में मगर मुझ से बद-गुमानी आप