हम ने भेजा तो है उस गुल को ज़बानी पैग़ाम
पर ये डर है न करे उस पे गिरानी पैग़ाम
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ये कू-ए-मय-फ़रोश में रौला हुआ कि रात
किसी जंगल के गुल-बूटे से जी मेरा बहल जाता
सैल-ए-गिर्या का मैं ममनूँ हूँ कि जिस की दौलत
आज पलकों को जाते हैं आँसू
तू हम-दमों से जुदा रह कि टूट जाता है
शाहिद रहियो तू ऐ शब-ए-हिज्र
मुश्ताक़ ही दिल बरसों उस ग़ुंचा-दहन का था
कुफ़्र फैला है यहाँ तक कि ज़माने में कोई
जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
जम्अ रखते नहीं, नहीं मालूम
नासेहा दूर हो चल मुझ से तू हिज्जे मत कर
मुँह छुपाओ न तुम नक़ाब में जान