हम 'मुसहफ़ी' ब-कुफ़्र तो मशहूर हो चुके
आना क़ुबूल अब नहीं इस्लाम में हमें
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तसव्वुर तेरी सूरत का मुझे हर शब सताता है
याँ तक किया मैं गिर्या कि ख़ूबाँ के इश्क़ में
ईद तू आ के मिरे जी को जलावे अफ़्सोस
रहमत तिरी ऐ नाक़ा-कश-ए-महमिल-ए-हाजी
जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
ऐ इश्क़ जहाँ है यार मेरा
ऐ 'मुसहफ़ी' अब चखियो मज़ा ज़ोहद का तुम ने
मोहब्बत ने किया क्या न आनें निकालीं
न प्यारे ऊपर ऊपर माल हर सुब्ह-ओ-मसा चक्खो
होती नहीं है दिल को तसल्ली किसी तरह
आह देखी थी मैं जिस घर में परी की सूरत
तू जिस के ख़्वाब में आया हो वक़्त-ए-सुब्ह सनम