हम गबरू हम मुसलमाँ हम जम्अ हम परेशाँ
इक सिलसिला बंधा उस ज़ुल्फ़-ए-दोता से देखा
Javed Akhtar
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जान को जैसे निकाले है कोई क़ालिब से
किस वक़्त जुदा मुझ से वो कम्बख़्त हुई थी
क्या क्या बदन-ए-साफ़ नज़र आते हैं हम को
ख़रीदार अपना हम को जानते हो
सूख कर रह गया है काग़ज़ वार
घर में बाशिंदे तो इक नाज़ में मर जाते हैं
ज़ख़्म-ए-शमशीर-ए-निगह हैफ़ कि अच्छा न हुआ
सोच दिन रात यही है तिरे दीवाने की
मैं अजब ये रस्म देखी मुझे रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं
पान खाने की अदा ये है तो इक आलम को
हर दम पुकारते हो किनाए से क्या मियाँ