हम भी ऐ जान-ए-मन इतने तो नहीं नाकारा
कभी कुछ काम तू हम को भी तो फ़रमाया कर
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इक बिजली की कौंद हम ने देखी
डाल कर ग़ुंचों की मुँदरी शाख़-ए-गुल के कान में
दिल डूब गया टूट गया सब्र का लंगर
आँखें न चुरा 'मुसहफ़ी'-ए-रेख़्ता-गो से
तू ने मुँह फेरा और उस का नूर सा जाता रहा
उस ने गाली मुझे दी हो के इताब-आलूदा
'मुसहफ़ी' रशहा-ए-क़लम से मिरे
इस गोशा-ए-उज़्लत में तन्हाई है और मैं हूँ
उम्र सय्याद की गुज़री इसी जासूसी में
नाज़ुक है दिल-ए-यार बहुत चाहिए मुझ को
दिल और सियह हो गए माह-ए-रमज़ाँ में
तू छोड़ अब तो असीर-ए-क़फ़स को ऐ सय्याद