होती नहीं है दिल को तसल्ली किसी तरह
जब तक मैं दरमियान का पर्दा उठा न दूँ
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जो दम हुक़्क़े का दूँ बोले कि ''मैं हुक़्क़ा नहीं पीता''
मोहब्बत ने किया क्या न आनें निकालीं
अभी आग़ाज़-ए-मोहब्बत है कुछ इस का अंजाम
धो डालिए ख़ून 'मुसहफ़ी' का
हो चुका नाज़ मुँह दिखाइए बस
शाहिद रहियो तू ऐ शब-ए-हिज्र
बस तू ने अपने मुँह से जो पर्दा उठा दिया
इन दिनों शहर से जी सख़्त ब-तंग आया है
ख़्वाहिश-ए-वस्ल तो रखता हूँ बहुत जी में वले
ज़ुल्फ़ों का बिखरना इक तो बला, आरिज़ की झलक फिर वैसी ही
जिस वक़्त कि कोठे पर वो माह-ए-तमाम आवे
किबरियाई की अदा तुझ में है