होता है मुसाफ़िर को दो-राहे में तवक़्क़ुफ़
रह एक है उठ जाए जो शक दैर-ओ-हरम का
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ऐ 'मुसहफ़ी' तू और कहाँ शेर का दावा
ख़्वाब था या ख़याल था क्या था
लैला चली थी हज के लिए जज़्ब-ए-इश्क़ से
ज़ख़्म है और नमक फ़िशानी है
गर समझते वो कभी मअनी-ए-मत्न-ए-क़ुरआँ
बाल अपने बढ़ाते हैं किस वास्ते दीवाने
गर ज़माने की अदावत है यही मुझ से तो मैं
याँ तक किया मैं गिर्या कि ख़ूबाँ के इश्क़ में
गर मज़ा चाहो तो कतरो दिल सरौते से मिरा
कह गया कुछ तो ज़ेर-ए-लब कोई
ले लिया प्यार से अक्स अपने का झुक कर बोसा
मेरे दिल-ए-शिकस्ता को कहती है देख ख़ल्क़