हिन्दोस्ताँ में दौलत ओ हशमत जो कुछ कि थी
काफ़िर फ़िरंगियों ने ब-तदबीर खींच ली
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कीजिए ज़ुल्म सज़ा-वार-ए-जफ़ा हम ही हैं
काफ़िर मुझे न कहियो ऐ मोमिनान-ए-सादिक़
दुख़्तर-ए-रज़ की हूँ सोहबत का मुबाशिर क्यूँ-कर
क़िस्सा-ए-मजनूँ पसंद-ए-ख़ातिर जानाना है
गुल ही इस बाग़ से जाने पे नहीं बैठा कुछ
अव्वल-ए-उम्र में देखा उसे जिस ने ये कहा
पस-ए-क़ाफ़िला जो ग़ुबार था कोई उस में नाक़ा-सवार था
वो जो आशिक़ हैं अपने हाथों से
मुसव्विरों ने क़लम रख दिए हैं हाथों से
करता हूँ सवाल जिस के दर पर
अज़-बस भला लगे है तू मेरे यार मुझ को
ऐ फ़लक तुझ को क़सम है मिरी इस को न बुझा