हाथों से उस के शीशा-ए-दिल चूर है मिरा
या-रब किए की अपने सज़ा पाए मोहतसिब
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दरिया-ए-आशिक़ी में जो थे घाट घाट साँप
जो दम हुक़्क़े का दूँ बोले कि ''मैं हुक़्क़ा नहीं पीता''
उस के दहान-ए-तंग में जा-ए-सुख़न नहीं
मैं वो दोज़ख़ हूँ कि आतिश पर मिरी
जब तक ये मोहब्बत में बदनाम नहीं होता
उस के कूचे की तरफ़ था शब जो दंगा आग का
मुज़्दा ऐ यास कि याँ कुंज-ए-क़फ़स के क़ैदी
शब-ए-हिज्राँ थी मैं था और तन्हाई का आलम था
दामन-कशाँ वो जाए था सैर-ए-चमन को और
बाल अपने बढ़ाते हैं किस वास्ते दीवाने
क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक
आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा