हाथ दोनों कफ़-ए-अफ़्सोस की सूरत लिक्खे
की जो नक़्क़ाश ने तस्वीर हमारी तय्यार
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सुम्बुल को परेशान किया बाद-ए-सबा ने
साबित तू रह जफ़ा पे मैं क़ाएम वफ़ा पे हूँ
तन्हा न वो हाथों की हिना ले गई दिल को
कौन कहता है कि फिर ख़ाक से उठते हैं शहीद
गर समझते वो कभी मअनी-ए-मत्न-ए-क़ुरआँ
दर तलक जाने की है उस के मनाही हम को
तीखे तो हो प सच कहो उस वक़्त क्या करो
कैसी फ़रफ़र ज़बान चलती है
सरक ऐ मौज सलामत तो रह-ए-साहिल ले
बोइए मज़रा-ए-दिल में जो इनायात के बीज
नक़्शा है उन की चश्म में लैला की चश्म का
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा