या थी हवस-ए-विसाल दिन रात
या थी हवस-ए-विसाल दिन रात
या रहने लगा मलाल दिन रात
बेचैन रखे है मेरे दिल को
काफ़िर ये तिरा ख़याल दिन रात
रहता है मिरी ज़बाँ पे तुझ-बिन
अफ़्साना-ए-ज़ुल्फ़-ओ-ख़ाल दिन रात
देखूँ हूँ ब-नुक़्ता-ए-तसव्वुर
मिलने की तिरे ही फ़ाल दिन रात
आँखों में फिरे है जूँ मह-ए-ईद
अबरू का तिरे हिलाल दिन रात
वो सैद हूँ मैं रहे है जिस के
अंदेशे का सर पे जाल दिन रात
आँखों के तले मिरी फिरे है
अब तक वही बोल-चाल दिन रात
जिस सब्ज़ा-ए-मुर्ग़ज़ार में था
रक़्सिंदा मिरा ग़ज़ाल दिन रात
जौलानी-ए-दर्द-ओ-ग़म से अब याँ
वो सब्ज़ा है पाएमाल दिन रात
गर तू ही नहीं तो क्यूँ जिऊँ मैं
है ज़ीस्त मुझे वबाल दिन रात
फ़ुर्क़त में तिरी है 'मुसहफ़ी' को
लिखना यही हस्ब-ए-हाल दिन रात
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