वही रातें आएँ वही ज़ारियाँ
वही रातें आएँ वही ज़ारियाँ
वही फिर सहर तक की बेदारियाँ
परी हूर इंसाँ किसी में नहीं
जो देखी हैं तुझ में अदा-दारियाँ
मैं काफ़िर हूँ पर देख सकता नहीं
कमर से तिरी रब्त-ए-ज़ुन्नारियाँ
न थे दाग़ सीने के इतने घने
ये हैं दस्त-ए-क़ुदरत की गुल-कारियाँ
हम इक रोज़ जी से गुज़र जाएँगे
रहें यूँ ही गर नित की बे-ज़ारियाँ
बहारें कहाँ अब्र-ए-गुलनार की
कहाँ मेरी मिज़्गाँ की ख़ूँ-बारियाँ
न सज्दों से हासिल हुआ वस्ल-ए-यार
मैं काबे में भी टक्करें मारियाँ
मवाक़ीस जिस दम तो साबित हुईं
सिवा इश्क़ के कितनी बीमारियाँ
तू कैसी बला में फँसा 'मुसहफ़ी'
हुईं क्या दिवाने वो होशयारियाँ
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