तिरे मुँह छुपाते ही फिर मुझे ख़बर अपनी कुछ न ज़री रही
तिरे मुँह छुपाते ही फिर मुझे ख़बर अपनी कुछ न ज़री रही
न फ़िराक़ था न विसाल था रही इक तो बे-ख़बरी रही
तू हमेशा ऐ बुत-ए-मह-लक़ा रहा महव अपनी ही शक्ल का
तिरे अक्स-ए-हुस्न की आरसी तिरे सामने ही धरी रही
तिरे अहद-ए-हुस्न में यक ज़माँ न जुनूँ से मुझ को मिली अमाँ
वही नाला और वही फ़ुग़ाँ वही मश्क़-ए-जामा-दरी रही
कोई होवे क्यूँके न तंग-दिल तिरे दिल में ऐ बुत-ए-संग-दिल
असर आह अपनी ने ये क्या कि रहीन-ए-बे-असरी रही
न ख़त आए पर भी कमी पड़ी तिरी शान-ए-हुस्न में यक ज़री
वही क़द की फ़ित्नागरी रही वही रुख़ की जल्वागरी रही
कभी दिल लिया कभी दीं लिया कभी ज़र लिया कभी सर लिया
यूँही अपनी मुफ़्त-दही रही वही उस की मुफ़्त-बरी रही
न कमाल-ए-औज से तू गिरा कभी फ़िक्र-ए-शेर में 'मुसहफ़ी'
ग़ज़ल और भी कही तू ने गर वही तेरी तेज़-परी रही
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